स्वागत है आपका "हमारे रोचक ग्रंथ" श्रृंखला के इस अगले लेख में जिसका शीर्षक है - कर्ण। आरंभ करने के पूर्व अपनी द्रष्टता स्वीकारना चाहता हूँ जाने-अनजाने में ऐसे महान चरित्रों पर टीका टिप्पणी करने के लिए| आख़िर वे वो महानायक हैं जिनका हम आज भी आदर करते हैं और मैं, मात्र एक अनामंत्रित विश्लेषक|
जैसा की मैंने अपने पिछले लेख (https://bit.ly/2kwrwcE) में भी उल्लेख किया था, कि पाठकों का एक समूह दुखांत नायकों का गुणगान करता रहा है और कर्ण उन सभी के पसंदीदा चरित्र रहे हैं | लेखिका इरावती कर्वे अपनी पुस्तक "युगांता" में बड़े सुंदर शब्दों में लिखती हैं(अंग्रेजी में) कि "हालाँकि महाभारत में सभी चरित्रों की परीक्षा ली गई, मगर कोई जीवन से इतना पराजित प्रतीत नहीं हुआ जितना पराजित कर्ण प्रतीत हुए | अपने अपने विचारानुसार, इसे प्रशंसा भी माना जा सकता है और टिप्पणी भी|
तो आइये जानने का प्रयास करते हैं कि क्या कारण रहे जिन्होंने कर्ण जैसे नायक को एक दुखांत नायक बनाया|
द्रश्य है रंगभूमि का जहाँ समस्त कुरु राजकुमार अपनी शिक्षा पूर्ण कर अपना कौशल प्रदर्शन कर रहे हैं| इसी समय अपने लिए अवसर की तलाश लिए कर्ण का भी वहाँ आगमन होता है| कर्ण के सूत पुत्र होने के कारण उनकी पात्रता पर विवाद होता है| किसी कारण से दुर्योधन कर्ण को समस्त कुरु राजकुमारों के समकक्ष लाने के लिए अंग देश का राजा घोषित कर देते हैं| इस कृत्य से अभिभूत, कर्ण दुर्योधन को जीवन पर्यन्त समर्पित हो जाते हैं|
चंद घड़ियों में इतना कुछ घटित हो गया जिसने आने वाले कल को सदा के लिए बदल दिया| अब अगर स्थिति पर आम आदमी के नज़रिये से गौर करें तो - मन को निराशा ने घेर रखा है, सम्मान के लिए जंग छिड़ी है,अधूरे सपने, अवसर की प्रतीक्षा में तड़पती प्रतिभा.........
अब कल्पना कीजिए कि जिस अवसर की आपको तहे दिल से प्रतीक्षा है, अचानक राज-घराने की ओर से आपको वह मौका मिल जाता है!
क्या कोई ऐसे अवसर को बिना विचारे स्वीकार कर लेगा जो अचानक आया और साथ ही वहाँ से आया जहाँ से आना अनेपक्षित था....?
क्या कोई इतना बड़ा आभार एक पल में स्वीकार कर लेगा फिर भले ही आभार देने वाला कोई भी हो?
क्या कोई राज-घराने से सीधा-सीधा जुड़ने के संभव परिणाम नहीं सोचेगा?
क्या प्रजा के रूप में कर्ण ने कभी राज महल के भीतर सिंहासन के लिए होने वाले षड्यंत्रों और अफवाहों के बारे में नहीं सुना? बतौर उदाहरण जब दुर्योधन ने बालपन में ही भीम को विष देने का प्रयत्न किया था...
और आख़िरकार क्या यह वाकई आवश्यक था....? ज्ञान के आभाव में समस्त पीड़ाओं और भयों का उत्पन्न होना स्वाभाविक है....परन्तु स्वयं भगवान परशुराम से श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् भी क्या कर्ण के पास अपने सामर्थ्य का परिचय देने का इसके अलावा और कोई उपाय नहीं था? आवेश में आकर कर्ण ने दुर्योधन के कृत्य को अत्यधिक बड़ा मान लिया और स्वयं के लिए वापस आने के समस्त द्वार सदा के लिए बंद कर दिए|
कर्ण का यह निर्णय उतावला तथा अविचार-पूर्ण प्रतीत होता है| इसलिए भी क्योंकि कर्ण हाल ही में अपने गुरु भगवान परशुराम से श्रापित हो कर आए थे| कर्ण जैसे वीर योद्धा जो अपने सामर्थ्य से वैसे भी कई राज्य जीत सकते थे, ऐसे सक्षम और ज्ञान प्राप्त किए हुए महावीर को इस प्रकार का आभार ग्रहण करना थोड़ा अशोभनीय प्रतीत होता है| साथ ही यह उनकी दानवीरता पर भी बड़ी सूक्ष्मता से प्रश्न खड़ा करता है क्योंकि उन्होंने जितना भी धन-दान किया, वह ना तो पैतृक था और ना ही अपने सामर्थ्य से अर्जित किया हुआ| उसकी शुरुआत तो आखिर एक आभार से ही हुई थी|
इस घटनाक्रम के पश्चात् कर्ण का जीवन दो पहलूओं में बंटा हुआ दिखता है
१) उनकी धर्म-अधर्म की व्यक्तिगत समझ
२) दुर्योधन को निर्विवाद समर्थन
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि दोनों पहलूओं की इस जंग में लगभग दूसरे पहलू का प्रभुत्व रहा है| मगर गौर से विचार करने पर कर्ण के जीवन का एक सूक्षम तीसरा पहलू भी देखने में आता है
३) एक अंध उग्रता जो अपने साथ हुए हर अत्याचार का और हर अपमान का प्रतिशोध चाहती है| कर्ण अपनी पीड़ाओं को जीत ना सके और वह पीड़ा भीतर ही भीतर संचित होती रही |
कर्ण ने आजीवन स्वयं को दुर्योधन का ऋणी माना......मगर ऋण की सीमा और मात्रा का क्या निर्धारण है?
क्या समस्त भारतीय उपमहाद्वीप पर की गई विजययात्रा भी एक अंग राज्य का ऋण उतारने के लिए पर्याप्त नहीं है!!?? (कदाचित जाने-अनजाने कर्ण ने दुर्योधन का साथ इसलिए थाम रखा था क्योंकि शायद कर्ण अवसर खोज रहे थे - अर्जुन को परास्त कर स्वयं के सामर्थ्य पर उठे प्रश्नों का उत्तर देने का और साथ ही उसका प्रतिशोध लेने का|)
एक और घटनाक्रम जहाँ पर यह प्रतिशोधक प्रवृत्ति दिखाई देती है, वह है द्रौपदी के वस्त्र-हरण का घटनाक्रम| द्यूत क्रीड़ा में कर्ण दर्शक थे...अधिक से अधिक एक विशेष दर्शक मगर किसी भी द्रष्टिकोण से हिस्सेदार तो बिलकुल भी नहीं | ऐसे में उनका द्रौपदी के बारे में अपमानजनक टिपण्णी करना बिलकुल भी तर्क सम्मत नहीं प्रतीत होता| कर्ण का यह व्यवहार "बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना" का बिल्कुल उपयुक्त (हालाँकि दुःखद) उदाहरण है| साथ ही जिस प्रकार की टिपण्णी कर्ण ने करी, वह उनकी स्त्रियों के प्रति मानसिकता को भी सामने लाता है | (एक बार फिर उनकी समझ पर भारी पड़ा प्रतिशोध - इस बार द्रौपदी-स्वयंवर में खुद के हुए अपमान का प्रतिशोध)
उक्त घटनाक्रम कर्ण के "समय के अनुपयुक्त चुनाव" को भी दर्शाते हैं| जब रंगभूमि में कर्ण शांत रह कर इंतज़ार कर सकते थे, तब वे अपने अवसर के लिए लड़े और जब वस्त्र-हरण के समय एक अद्रश्य स्वर्णिम अवसर था अपने शस्त्रों की खनकार सुनाने का, तब कर्ण मौन रहे| कर्ण का एक और चौंका देने वाला निर्णय था अर्जुन के आलावा किसी और पांडव को महाभारत के युद्ध में ना मारने का.... यह जानते हुए जब सभी ५ पांडव उनके भाई हैं, तो एक को मरना और ४ को ना मरना किस प्रकार का समीकरण है? और साथ ही यह निर्णय उनकी दुर्योधन के प्रति निष्ठा के बिल्कुल विपरीत भी था| अगर अवसर मिलता है तो क्यों ना युधिष्ठिर को पराजित कर युद्ध को उधर ही समाप्त कर दिया जाए? (लगता है कर्ण का तीसरा पहलू फिर उन पर भारी पड़ा )
जिस प्रकार अंतिम युद्ध में अर्जुन पर कर्ण भरी पड़े और निहत्थे मारे गए उसके अनुसार उनके कवच और कुण्डल का दान कर देना थोड़ा कम प्रासंगिक लगता है| जयद्रध को बचाते समय अर्जुन पर इंद्र भगवान की दी हुई शक्ति का प्रयोग ना करना भी एक और पहेली है| साथ ही, जिस प्रकार का वचन कर्ण ने कुंती को दिया की युद्ध के उपरांत कुंती के ५ पुत्र अवश्य जीवित रहेंगे यह भी अचंभित करने वाला है| किस प्रकार कर्ण ने मान लिया की अगर पांडव युद्ध जीत भी जाते हैं, तो युधिष्ठिर के साथ बाकी ४ भी जीवित रहेंगे?
संभवतया ये भी हो सकता है कि कर्ण एक साथ बहुत कुछ करने का प्रयत्न कर रहे थे| इसके बारे में एक पुराना दोहा याद आता है - एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय|
इस प्रकार का जटिल निर्णयन कर्ण के युद्ध कौशल पर भी प्रश्न खड़े करता है| अनेकों विचारों से घिरे उनके परेशान मन की आसानी से आवेश में आ जाने की संभावना प्रबल प्रतीत होती है| जिस प्रकार महाभारत युद्ध में अभिमन्यु तथा घटोत्कच ने कर्ण को मुश्किल में डाला, दुर्योधन का गंधर्वों द्वारा बंदी बनाया जाना और फिर अर्जुन द्वारा छुड़ाया जाना, विराट युद्ध में अर्जुन का अकेले समूची कौरव सेना पर भारी पड़ना, ये सभी ज्ञात घटनाक्रम हैं जब कर्ण बतौर योद्धा उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे|
कुल मिलाकर कर्ण के जीवन पर नज़र डालने पर एक झुंझलाहट की झलक मिलती है और उसका प्रतिशोध लेने की आतुरता जो कईं बार एक अनावश्यक उग्रता को जन्म देती है| इस झुंझलाहट ने उनको जटिल निर्णय लेने पर विवश किया जिसका परिणाम हुआ और अधिक झुंझलाहट| ताउम्र कर्ण ने अर्जुन से द्वंद करने का अत्यधिक इंतज़ार किया और अंत में अर्जुन के ही हाथों मारे गए जो कि और कोई नहीं उन्हीं के अनुज थे| कदाचित किसी चीज़ को इतनी विकटता से चाहने का यही परिणाम होता है!
सारांश यह निकलता है कि कर्ण जैसे नायक एक जिवंत उदाहरण है कि जब कोई चरमसीमा तक परखा जाए मगर ऐन मौके पर विफल हो जाए| उनका जीवन उनके तीनों पहलुओं की युद्ध स्थली बन कर रह गया| बहुत दुर्भाग्यपूर्ण सत्य है कि पहला पहलू - उनकी धर्म की व्यक्तिगत और उत्तम समझ, युद्ध की धूल में कहीं खो ही गई| प्रतीत होता है की उनके दूसरे पहलू का प्रभुत्व रहा पर कईं बार उनका तीसरा पहलू निर्णायक समय पर अपनी छाप छोड़ गया|
इन सभी चीज़ों के मध्य एक प्रश्न जिसके लिए कर्ण ने संघर्ष किया वह अनुत्तरित रह गया क्योंकि उनके भाग्य ने ऐसा मोड़ लिया की वो स्वयं एक क्षत्रिय निकले - क्या उच्च वर्ण के पास ही आयुध धारण करने का सामर्थ्य है?
क्या निम्न वर्ग को आयुध धारण करने (और अन्य उच्च कार्य) करने की अनुमति ना देना सही है?
महावीर कर्ण वाकई श्रेय के हक़दार हैं इतनी सभी चीज़ों का एक साथ सामना करने के लिए| अनेकों बार उनको ऐसा महसूस हुआ होगा जैसे जीवित अवस्था में ही छिन्न-भिन्न कर दिया गया हो| दुर्योधन और राजनेताओं के साथ जुड़ने के उपरांत भी कर्ण अपने लोगों (सुतों) को कभी नहीं भूले|
विविध प्रकार के घटनाक्रमों से सुसज्जित कर्ण का जीवन सजीव चित्रण है मानव प्रवृत्ति के अनगिनत पहलुओं का| यह एक अनुपम गाथा है मनुष्य के जीवन के साथ होने वाले अनुभवों और उनसे मिलने वाले सबकों की| कितना घातक हो सकता है..... कितना घातक हो सकता है अपनी कुंठाओं को ना जीत पाना और अपनी निराशाओं से अपने जीवन को दिशा देना............!!!
कर्ण कथा का वो अभिन्न भाग है जिनकी सराहना की जा सकती है,या उनकी आलोचना की जा सकती है, मगर उनकी अनदेखी कतई नहीं की जा सकती!!
आशा है आपको यह लेख विचारणीय लगा होगा| अपने विचार जरूर बताएं और यदि आपको उक्त द्रष्टिकोण अच्छा लगा हो तो इसी अधिक से अधिक लोगों तक अवश्य पहुचाएं| जुड़े रहिये हमारे साथ "हमारे रोचक ग्रंथ" की इस श्रृंखला में जिसमे हम और भी कईं दिलचस्प विषयों पर चर्चा करेंगे।
ईश्वर का अभिनंदन और आभार | |
इसी लेख को अंग्रेज़ी में यहाँ पढ़े - https://bit.ly/2lXhm5d
(विचार व्यक्तिगत हैं था किसी प्रकार की निंदा चेष्टित नहीं है)
जैसा की मैंने अपने पिछले लेख (https://bit.ly/2kwrwcE) में भी उल्लेख किया था, कि पाठकों का एक समूह दुखांत नायकों का गुणगान करता रहा है और कर्ण उन सभी के पसंदीदा चरित्र रहे हैं | लेखिका इरावती कर्वे अपनी पुस्तक "युगांता" में बड़े सुंदर शब्दों में लिखती हैं(अंग्रेजी में) कि "हालाँकि महाभारत में सभी चरित्रों की परीक्षा ली गई, मगर कोई जीवन से इतना पराजित प्रतीत नहीं हुआ जितना पराजित कर्ण प्रतीत हुए | अपने अपने विचारानुसार, इसे प्रशंसा भी माना जा सकता है और टिप्पणी भी|
तो आइये जानने का प्रयास करते हैं कि क्या कारण रहे जिन्होंने कर्ण जैसे नायक को एक दुखांत नायक बनाया|
द्रश्य है रंगभूमि का जहाँ समस्त कुरु राजकुमार अपनी शिक्षा पूर्ण कर अपना कौशल प्रदर्शन कर रहे हैं| इसी समय अपने लिए अवसर की तलाश लिए कर्ण का भी वहाँ आगमन होता है| कर्ण के सूत पुत्र होने के कारण उनकी पात्रता पर विवाद होता है| किसी कारण से दुर्योधन कर्ण को समस्त कुरु राजकुमारों के समकक्ष लाने के लिए अंग देश का राजा घोषित कर देते हैं| इस कृत्य से अभिभूत, कर्ण दुर्योधन को जीवन पर्यन्त समर्पित हो जाते हैं|
चंद घड़ियों में इतना कुछ घटित हो गया जिसने आने वाले कल को सदा के लिए बदल दिया| अब अगर स्थिति पर आम आदमी के नज़रिये से गौर करें तो - मन को निराशा ने घेर रखा है, सम्मान के लिए जंग छिड़ी है,अधूरे सपने, अवसर की प्रतीक्षा में तड़पती प्रतिभा.........
अब कल्पना कीजिए कि जिस अवसर की आपको तहे दिल से प्रतीक्षा है, अचानक राज-घराने की ओर से आपको वह मौका मिल जाता है!
क्या कोई ऐसे अवसर को बिना विचारे स्वीकार कर लेगा जो अचानक आया और साथ ही वहाँ से आया जहाँ से आना अनेपक्षित था....?
क्या कोई इतना बड़ा आभार एक पल में स्वीकार कर लेगा फिर भले ही आभार देने वाला कोई भी हो?
क्या कोई राज-घराने से सीधा-सीधा जुड़ने के संभव परिणाम नहीं सोचेगा?
क्या प्रजा के रूप में कर्ण ने कभी राज महल के भीतर सिंहासन के लिए होने वाले षड्यंत्रों और अफवाहों के बारे में नहीं सुना? बतौर उदाहरण जब दुर्योधन ने बालपन में ही भीम को विष देने का प्रयत्न किया था...
और आख़िरकार क्या यह वाकई आवश्यक था....? ज्ञान के आभाव में समस्त पीड़ाओं और भयों का उत्पन्न होना स्वाभाविक है....परन्तु स्वयं भगवान परशुराम से श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् भी क्या कर्ण के पास अपने सामर्थ्य का परिचय देने का इसके अलावा और कोई उपाय नहीं था? आवेश में आकर कर्ण ने दुर्योधन के कृत्य को अत्यधिक बड़ा मान लिया और स्वयं के लिए वापस आने के समस्त द्वार सदा के लिए बंद कर दिए|
कर्ण का यह निर्णय उतावला तथा अविचार-पूर्ण प्रतीत होता है| इसलिए भी क्योंकि कर्ण हाल ही में अपने गुरु भगवान परशुराम से श्रापित हो कर आए थे| कर्ण जैसे वीर योद्धा जो अपने सामर्थ्य से वैसे भी कई राज्य जीत सकते थे, ऐसे सक्षम और ज्ञान प्राप्त किए हुए महावीर को इस प्रकार का आभार ग्रहण करना थोड़ा अशोभनीय प्रतीत होता है| साथ ही यह उनकी दानवीरता पर भी बड़ी सूक्ष्मता से प्रश्न खड़ा करता है क्योंकि उन्होंने जितना भी धन-दान किया, वह ना तो पैतृक था और ना ही अपने सामर्थ्य से अर्जित किया हुआ| उसकी शुरुआत तो आखिर एक आभार से ही हुई थी|
इस घटनाक्रम के पश्चात् कर्ण का जीवन दो पहलूओं में बंटा हुआ दिखता है
१) उनकी धर्म-अधर्म की व्यक्तिगत समझ
२) दुर्योधन को निर्विवाद समर्थन
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि दोनों पहलूओं की इस जंग में लगभग दूसरे पहलू का प्रभुत्व रहा है| मगर गौर से विचार करने पर कर्ण के जीवन का एक सूक्षम तीसरा पहलू भी देखने में आता है
३) एक अंध उग्रता जो अपने साथ हुए हर अत्याचार का और हर अपमान का प्रतिशोध चाहती है| कर्ण अपनी पीड़ाओं को जीत ना सके और वह पीड़ा भीतर ही भीतर संचित होती रही |
कर्ण ने आजीवन स्वयं को दुर्योधन का ऋणी माना......मगर ऋण की सीमा और मात्रा का क्या निर्धारण है?
क्या समस्त भारतीय उपमहाद्वीप पर की गई विजययात्रा भी एक अंग राज्य का ऋण उतारने के लिए पर्याप्त नहीं है!!?? (कदाचित जाने-अनजाने कर्ण ने दुर्योधन का साथ इसलिए थाम रखा था क्योंकि शायद कर्ण अवसर खोज रहे थे - अर्जुन को परास्त कर स्वयं के सामर्थ्य पर उठे प्रश्नों का उत्तर देने का और साथ ही उसका प्रतिशोध लेने का|)
एक और घटनाक्रम जहाँ पर यह प्रतिशोधक प्रवृत्ति दिखाई देती है, वह है द्रौपदी के वस्त्र-हरण का घटनाक्रम| द्यूत क्रीड़ा में कर्ण दर्शक थे...अधिक से अधिक एक विशेष दर्शक मगर किसी भी द्रष्टिकोण से हिस्सेदार तो बिलकुल भी नहीं | ऐसे में उनका द्रौपदी के बारे में अपमानजनक टिपण्णी करना बिलकुल भी तर्क सम्मत नहीं प्रतीत होता| कर्ण का यह व्यवहार "बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना" का बिल्कुल उपयुक्त (हालाँकि दुःखद) उदाहरण है| साथ ही जिस प्रकार की टिपण्णी कर्ण ने करी, वह उनकी स्त्रियों के प्रति मानसिकता को भी सामने लाता है | (एक बार फिर उनकी समझ पर भारी पड़ा प्रतिशोध - इस बार द्रौपदी-स्वयंवर में खुद के हुए अपमान का प्रतिशोध)
उक्त घटनाक्रम कर्ण के "समय के अनुपयुक्त चुनाव" को भी दर्शाते हैं| जब रंगभूमि में कर्ण शांत रह कर इंतज़ार कर सकते थे, तब वे अपने अवसर के लिए लड़े और जब वस्त्र-हरण के समय एक अद्रश्य स्वर्णिम अवसर था अपने शस्त्रों की खनकार सुनाने का, तब कर्ण मौन रहे| कर्ण का एक और चौंका देने वाला निर्णय था अर्जुन के आलावा किसी और पांडव को महाभारत के युद्ध में ना मारने का.... यह जानते हुए जब सभी ५ पांडव उनके भाई हैं, तो एक को मरना और ४ को ना मरना किस प्रकार का समीकरण है? और साथ ही यह निर्णय उनकी दुर्योधन के प्रति निष्ठा के बिल्कुल विपरीत भी था| अगर अवसर मिलता है तो क्यों ना युधिष्ठिर को पराजित कर युद्ध को उधर ही समाप्त कर दिया जाए? (लगता है कर्ण का तीसरा पहलू फिर उन पर भारी पड़ा )
जिस प्रकार अंतिम युद्ध में अर्जुन पर कर्ण भरी पड़े और निहत्थे मारे गए उसके अनुसार उनके कवच और कुण्डल का दान कर देना थोड़ा कम प्रासंगिक लगता है| जयद्रध को बचाते समय अर्जुन पर इंद्र भगवान की दी हुई शक्ति का प्रयोग ना करना भी एक और पहेली है| साथ ही, जिस प्रकार का वचन कर्ण ने कुंती को दिया की युद्ध के उपरांत कुंती के ५ पुत्र अवश्य जीवित रहेंगे यह भी अचंभित करने वाला है| किस प्रकार कर्ण ने मान लिया की अगर पांडव युद्ध जीत भी जाते हैं, तो युधिष्ठिर के साथ बाकी ४ भी जीवित रहेंगे?
संभवतया ये भी हो सकता है कि कर्ण एक साथ बहुत कुछ करने का प्रयत्न कर रहे थे| इसके बारे में एक पुराना दोहा याद आता है - एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय|
इस प्रकार का जटिल निर्णयन कर्ण के युद्ध कौशल पर भी प्रश्न खड़े करता है| अनेकों विचारों से घिरे उनके परेशान मन की आसानी से आवेश में आ जाने की संभावना प्रबल प्रतीत होती है| जिस प्रकार महाभारत युद्ध में अभिमन्यु तथा घटोत्कच ने कर्ण को मुश्किल में डाला, दुर्योधन का गंधर्वों द्वारा बंदी बनाया जाना और फिर अर्जुन द्वारा छुड़ाया जाना, विराट युद्ध में अर्जुन का अकेले समूची कौरव सेना पर भारी पड़ना, ये सभी ज्ञात घटनाक्रम हैं जब कर्ण बतौर योद्धा उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे|
कुल मिलाकर कर्ण के जीवन पर नज़र डालने पर एक झुंझलाहट की झलक मिलती है और उसका प्रतिशोध लेने की आतुरता जो कईं बार एक अनावश्यक उग्रता को जन्म देती है| इस झुंझलाहट ने उनको जटिल निर्णय लेने पर विवश किया जिसका परिणाम हुआ और अधिक झुंझलाहट| ताउम्र कर्ण ने अर्जुन से द्वंद करने का अत्यधिक इंतज़ार किया और अंत में अर्जुन के ही हाथों मारे गए जो कि और कोई नहीं उन्हीं के अनुज थे| कदाचित किसी चीज़ को इतनी विकटता से चाहने का यही परिणाम होता है!
सारांश यह निकलता है कि कर्ण जैसे नायक एक जिवंत उदाहरण है कि जब कोई चरमसीमा तक परखा जाए मगर ऐन मौके पर विफल हो जाए| उनका जीवन उनके तीनों पहलुओं की युद्ध स्थली बन कर रह गया| बहुत दुर्भाग्यपूर्ण सत्य है कि पहला पहलू - उनकी धर्म की व्यक्तिगत और उत्तम समझ, युद्ध की धूल में कहीं खो ही गई| प्रतीत होता है की उनके दूसरे पहलू का प्रभुत्व रहा पर कईं बार उनका तीसरा पहलू निर्णायक समय पर अपनी छाप छोड़ गया|
इन सभी चीज़ों के मध्य एक प्रश्न जिसके लिए कर्ण ने संघर्ष किया वह अनुत्तरित रह गया क्योंकि उनके भाग्य ने ऐसा मोड़ लिया की वो स्वयं एक क्षत्रिय निकले - क्या उच्च वर्ण के पास ही आयुध धारण करने का सामर्थ्य है?
क्या निम्न वर्ग को आयुध धारण करने (और अन्य उच्च कार्य) करने की अनुमति ना देना सही है?
महावीर कर्ण वाकई श्रेय के हक़दार हैं इतनी सभी चीज़ों का एक साथ सामना करने के लिए| अनेकों बार उनको ऐसा महसूस हुआ होगा जैसे जीवित अवस्था में ही छिन्न-भिन्न कर दिया गया हो| दुर्योधन और राजनेताओं के साथ जुड़ने के उपरांत भी कर्ण अपने लोगों (सुतों) को कभी नहीं भूले|
विविध प्रकार के घटनाक्रमों से सुसज्जित कर्ण का जीवन सजीव चित्रण है मानव प्रवृत्ति के अनगिनत पहलुओं का| यह एक अनुपम गाथा है मनुष्य के जीवन के साथ होने वाले अनुभवों और उनसे मिलने वाले सबकों की| कितना घातक हो सकता है..... कितना घातक हो सकता है अपनी कुंठाओं को ना जीत पाना और अपनी निराशाओं से अपने जीवन को दिशा देना............!!!
कर्ण कथा का वो अभिन्न भाग है जिनकी सराहना की जा सकती है,या उनकी आलोचना की जा सकती है, मगर उनकी अनदेखी कतई नहीं की जा सकती!!
आशा है आपको यह लेख विचारणीय लगा होगा| अपने विचार जरूर बताएं और यदि आपको उक्त द्रष्टिकोण अच्छा लगा हो तो इसी अधिक से अधिक लोगों तक अवश्य पहुचाएं| जुड़े रहिये हमारे साथ "हमारे रोचक ग्रंथ" की इस श्रृंखला में जिसमे हम और भी कईं दिलचस्प विषयों पर चर्चा करेंगे।
इसी लेख को अंग्रेज़ी में यहाँ पढ़े - https://bit.ly/2lXhm5d
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